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Wednesday, 22 August 2018

स्पंदन - शब्द ब्रह्म-3


वैखरी में शब्द और अर्थ अलग दिखाई पड़ते हैं। मध्यमा में शब्द नाद में परिवर्तित होता है। मानसिक जप जैसे-जैसे आगे बढ़ता है। ध्वनि समाप्त हो जाती है, ज्योति स्वरूप दिखाई पड़ता है। पश्यन्ति में शब्द और अर्थ एक हो जाते हैं। चेतना का प्रकाश प्रकट होता है। मंत्र सिद्धि और ईश-दर्शन का क्षेत्र है पश्यन्ति। कालान्तर में पश्यन्ति से परा में प्रवेश होता है। यहां आकर नाद बिन्दु में लीन हो जाता है। अर्थात् बिन्दु से उत्पन्न नाद, बिन्दु में ही लीन।
पंडित गोपीनाथ कविराज लिखते हैं—‘वर्णात्मक स्थूल शब्द के अन्तराल में नादात्मक चेतन शब्द को पहचान लेने पर जब वर्णगत सभी दोषों का उपसंहार हो जाता है तब चैतन्य ही मुख्य होता है। एकाग्रता के यही लक्षण हैं। इस अवस्था में वक्र वायु के तरंग नहीं रहते, केवल सरल गति रहती है। यह चैतन्य शक्ति की लीला है जो महामाया का सहारा लेकर रहती है।’
मंत्र
जो मनन करने से त्राण करता है, रक्षा करता है उसे मंत्र कहते हैं। मंत्रों का मनन ही तन्त्र है और मंत्रों का निश्चित स्वरूप में प्रयोग ही यंत्र का निर्माण करता है। मंत्र सात्विक, शुद्ध भावों का बोध कराता है, अत: आवरण हटाकर बुद्धि और मन को निर्मल करता है।
व्यक्ति को शुद्ध आनन्द भाव में स्थापित करता है। मंत्र शब्दात्मक होते हैं। हर मंत्र का अपना स्वर, अर्थ, छन्द और विनियोग होता है। इसके साथ ही इसका भाव चलता है। मंत्र का जप एक ओर गति प्रदान करता है, वहीं दूसरी ओर, भाव से अर्थ का साक्षात्कार होता है।
तीन प्रकार के जप कहे गए हैं। जब मंत्र में शब्दों का उच्चारण स्पष्ट सुनाई देता है तो उसको ‘वाचिक जप’ कहते हैं। जिसमें ध्वनि सुनाई नहीं पड़ती, केवल होठ हिलते हैं, कण्ठ का प्रयोग होता है तो उसको ‘उपांशु जप’ कहते हैं। जिस जप में केवल मन से ही अर्थ का ज्ञान प्रवाह रहता है, उसको ‘मानसिक जप’ कहते हैं। श्रेणी के अनुसार वाचिक से उपांशु और उपांशु से मानसिक जप को श्रेष्ठ माना गया है।
एकाग्रता
एकाग्रता के दो उपाय हैं—प्रथम उपाय है कि आप जिस इष्ट का मंत्र जाप करते हैं, उसका एक चित्र मन में बना लें और मंत्र का जाप उसी को समर्पित करते रहें, धीरे-धीरे चित्र स्वयं स्पष्ट होकर प्रकट होने लगेगा। दूसरा उपाय यह है कि आप मंत्र के शब्दों को स्वयं भी सुनें। आप चित्त को शब्दों पर टिकाएं और यह प्रयास करें कि आप प्रसन्नचित्त हैं, भाव निर्मल हैं और इष्टï के चरणों में समर्पित हो रहे हैं। अपनी अच्छी-बुरी सब प्रवृत्तियां, कार्य और परिणाम उनको समर्पित कर रहे हैं, निमित्त बन रहे हैं। कोई भी जप इस चित्त शुद्धि के बिना परिणाम नहीं ला सकता।
जैसे ही आप शब्दों पर, शब्दों के अर्थ पर ध्यान केन्द्रित करेंगे, आपकी एकाग्रता बढऩे लगेगी। आपको पता चलता रहेगा कि आपका उच्चारण सही है। उच्चारण बदलने से प्रभाव भी बदल जाएंगे। कुछ ही समय में आपको आभास होने लगेगा कि आपके जप की ध्वनि मन्द होती जा रही है। आप शब्दों को सुनते रहिए, ध्वनि मन्द होते-होते आप उपांशु जप में प्रवेश कर लेंगे। श्वास की गति भी इसी अनुपात में मंद पड़ जाएगी। यही अभ्यास कालान्तर में, एकाग्रता के अनुपात में, मानस का मार्ग प्रशस्त करेगा। आपको सुखद अनुभूति होगी।
इस कार्य में सर्वाधिक गति एकाक्षर बीज मंत्रों से प्राप्त होती है। हर देवता का एक बीज-मंत्र है। गुरु प्रदत्त बीज-मंत्र श्रद्धा और अभ्यास से शीघ्र ही मानस-जप में परिवर्तित हो जाता है। जप उपासना का एक अति सरल क्रम है। इसमें प्रवेश के लिए अलग से किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। हर साधारण व्यक्ति के लिए उच्च स्तर तक पहुंचने का यह आसान मार्ग है। आवश्यकता है तो केवल तीव्र उत्कण्ठा की। समर्पित मनोयोग की।
जप का प्रभाव
जप के प्रभाव को समझने के लिए यह पर्याप्त है कि जप के शब्दों के बीच का अवकाश अभ्यास के साथ कम होता जाता है। धीरे-धीरे अवकाश के साथ शब्द व ध्वनि भी लीन होते जाते हैं। नाद रह जाता है। नाद भी इसी क्रम में आगे चलकर बिन्दु में जहां से उठता है, वहीं लीन हो जाता है। व्यक्ति केवल दृष्टा की तरह देखता रहता है। जानता रहता है। प्रकाशित हो उठता है।
जप का मुख्य प्रभाव प्राण-धारा पर पड़ता है और साधक को पता भी नहीं चलता। वह केवल ध्वनि और शब्दों तक ही जान पाता है। प्राणों का स्पन्दन, अर्थात् प्रकृति की लीला। शरीर में प्राण-अपान-व्यान आदि पांचों स्थूल प्राणवायु रूप में कार्य करते हैं। इड़ा-पिंगला से इनका व्यापार चलता है। जप के अभ्यास से व्यक्ति सूक्ष्म प्राणों के धरातल पर आता है। सुषुम्ना में केवल सूक्ष्म प्राण ही प्रवेश करते हैं।
इड़ा-पिंगला तो स्वत: ही शिथिल हो जाती हैं। शरीर की सारी गतिविधियां भी शिथिल हो जाती हैं। व्यक्ति स्थूल देह से सूक्ष्म देह में प्रवेश कर लेता है। सुषुम्ना में तीन सूक्ष्म नाडिय़ां हैं—वज्रिणी, चित्रिणी और ब्रह्मा। इनमें जप से सूक्ष्म प्राणों का कार्य शुरू होते ही एकाग्रता बढ़ती जाती है, व्यक्ति अन्तर्मुखी होता जाता है। वह कारण देह की ओर अग्रसर होता है।

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