कठिनाइयों का अन्त कैसे हो ?
वेदमूर्ति युगऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा जी मनुष्य को श्रेष्ठ जीवन जीने की कला बताते हुए कहते हैं कि अगर किसी को जीवन में महान बनना है तो उसके लिए उसे बडी से बड़ी कठिनाई का सामना भी करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए । साथ ही महान बनने के बाद उस महानता को उसे हजम करने की कला भी आना चाहिए । क्योंकि जिसके जो व्यक्ति अपने आपको जितना महान समझता है उसके शत्रु भी उतने ही अधिक होते हैं । महानता का भाव एक प्रकार का मानसिक रोग है । जो व्यक्ति अपने आपको महान समझता है वह अंतर्मन से असन्तुष्ट रहता है । उसके मन में भारी अन्तर्द्वन्द्व होता रहता है । वह बड़े-बड़े काम का आयोजन करता है । उसके सभी काम असामान्य होते हैं । वह संसार को ही गलत मार्ग पर चलते हुए देखता है और उसके सुधार करने की धुन में लग जाता है ।
महानता के भाव से प्रेरित कोई व्यक्ति अपने प्रतिद्वन्द्वी पर भौतिक विजय प्राप्त करने की चेष्टा करता है और कोई नैतिक। नैतिक विजय में वह अपने शत्रु को मित्र बनाने में भी समर्थ न होता परन्तु संसार में उसको पद पर से गिराने में समर्थ होता है । इस प्रकार जितने लोगों को वह नैतिक दृष्टि से संसार में नीचा सिद्ध करने की चेष्टा करता है, वे सब उसके शत्रु बन जाते हैं। इन शत्रुओं की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है परन्तु शत्रुओं की संख्या बढ़ती हुई देखकर उसे कोई आश्चर्य नहीं होता । वह समझता है कि उसके उच्चादर्श का समाज द्वारा विरोध होना स्वाभाविक ही है ।
जब तक इन शत्रुओं से लड़ने को वह अपने आप में सामर्थ्य पाता है, वह कुछ न कुछ रचनात्मक काम में लगा रहता है । इस प्रकार वह संसार का कल्याण करने में समर्थ होता है । पर जब अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने की उसकी आशा निराशा में बदल जाती है तो वह विक्षिप्त अथवा निराश पापी मनोवृत्ति का हो जाता है । इसलिए जीवन को बहुत ही संभल कर सावधानी पूर्वक जीना चाहिए जिससे आने वाली कठिनाइयों का अंत वह विवेक पूर्ण तरीके से कर सके ।
(वेदमूर्ति युगऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा)
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